- अरविन्द मोहन
देशी विरोध और आलोचना के खिलाफ उठाए गए मोदी सरकार के कदम ज्यादा सख्त हैं। जिन लोगों, खासकर नौजवानों और किसानों का किसी राष्ट्रविरोधी संगठन से दूर-दूर का नाता न रहा हों, उन्हें सीधे- सीधे राष्ट्रविरोधी गतिविधियों से जुड़ा बताकर उनके खिलाफ ऐसे कानूनों के तहत कार्रवाई करना एक गंभीर मामला है।
सिद्दीक कप्पन मामले में यूएपीए अर्थात अनलाफुलएक्टिविटी प्रीवेनशन एक्ट और प्रीवेनशन ऑफ मनी लांडरिंग एक्ट के मामले में सरकार को मिली 'पराजय' के तुरंत बाद जामिया केस में शरजील इमाम, शफूरा जरगर और आसिफ इकबाल तन्हा समेत ग्यारह लोगों की रिहाई ने केन्द्रीय गृह मंत्रालय और दिल्ली पुलिस की कार्यपद्धति पर सवाल खड़े किए ही की और बड़े मसले उठाए जिनकी चर्चा होनी चाहिए।
कप्पन एक पत्रकार हैं जिन्हें हाथरस में एक दलित लड़की के साथ बलात्कार के बाद हुई हत्या के मामले को कवर करने जाते समय गिरफ्तार किया गया था। उन पर उपरोक्त दो भारी-भरकम कानूनों के तहत मामला दर्ज हुआ था और वे दो साल से जेल में थे। जामिया मामले में भी गिरफ़्तारी समेत काफी कुछ हुआ और इस चक्कर में गर्भवती सफूरा को भी कोई राहत नहीं मिली थी। इससे पहले दिल्ली दंगों के मामले में भी दिल्ली पुलिस की ऐसी ही किरकिरी बार-बार हो रही है और अदालत ज्यादातर मामलों को बनावटी घोषित कर रही है। जिस उमर गुल को लगभग राष्ट्रद्रोही बताया गया था वह बेकसूर साबित हो चुका है और प्रो. साई बाबा तथा गौतम नवलखा जैसे नागरिक अधिकार कार्यकर्ता भी छूट चुके हैं। इससे पहले अदालत विदेशी लेन-देन में पैसों की गड़बड़ से इतर मामलों में भी प्रवर्तन निदेशालय के पास मामला भेजने की आलोचना कर चुकी है। ऐसी 'असफलता' का प्रतिशत उन मामलों में ज्यादा है जो ज्यादा प्रचारित हुए हैं लेकिन पर्याप्त संवेदनशील हैं।
यही चीज इन्हें सामान्य अदालती फैसलों से अलग करती है। ये सबूतों या गवाहों के अभाव में खत्म होने वाले मामले नहीं हैं और न विपक्षी काबिल वकीलों की कानूनी बुद्धि का कमाल है। यह एक मामले में सरकार की असफलता है और एक खास नजरिए की सीमाओं और नुकसान को भी बताता है। जाहिर तौर पर ये फैसले नरेंद्र मोदी सरकार और खास तौर पर उनके गृहमंत्री अमित शाह की कार्यशैली पर टिप्पणी है जिन्हें बहुत काबिल बताया जाता है। राजनैतिक प्रबंधन, चुनावी दांव-पेंच और सरकार बनवाने-गिरवाने के खेल का तो वे बादशाह ही माने जाते हैं। दिल्ली पुलिस भी उनके अधीन है इसलिए जामिया का मामला हो या जेएनयू का, दिल्ली दंगों का मामला हो या सीएए विरोधी धरने के खिलाफ़ दर्ज मामलों में असफलता, इन सबका राजनैतिक भांडा गृहमंत्री के माथे ही फूटेगा। और इन मामलों में उनकी अतिरिक्त सक्रियता भी छुपी नहीं है। यह असफलता उनका बाल बांका करेगी या कोई अनजान सी है यह नहीं कहा जा सकता। उन्होंने जो कुछ किया, सोच-समझकर किया और उसका राजनैतिक लाभ हासिल हो चुका है। ऐसे अदालती फैसलों से उनका ज्यादा कुछ बिगड़ने वाला नहीं है। कई लोग मानते हैं कि फैसले देने वालों का बिगड़ जाए तो चौंकाने वाली बात नहीं होगी।
जो नरेंद्र मोदी विदेशी मीडिया या संस्थागत आलोचना और प्रशंसा को लेकर बहुत ज्यादा संवेदनशील होते हैं वे अपने यहां के जरा से लेकर साल-साल भर चलाने वाले विरोध आंदोलनों, मीडिया और अकादमिक जगत की आलोचना, किसी एक पत्रकार, कार्टूनिस्ट और सोशल मीडिया की टिप्पणी पर इतना क्यों भड़कते हैं कि उनकी सरकार उसके खिलाफ देशद्रोह से लेकर जाने किस-किस तरह के मुकदमे थोप देती है और लोगों को जेल में डाल देती है, यह सवाल जरूर विचारणीय है। हमने हाल में बीबीसी के एक डाक्यूमेंटरी और हिंडेनबर्ग रिपोर्ट पर सरकार और उसके समर्थकों को बेचैन होते देखा है तो विदेशों में मोदी के गुणगान पर उन्हें इतराते देखा है। जिस तरह बीबीसी की डाक्यूमेंटरी को रोकने की कोशिश हुई उससे इतना साफ हो गया कि सरकार विदेशी आलोचना को बहुत ज्यादा महत्व देती है। कई दफे ऐसी आलोचनाओं या रेटिंग एजेंसियों या विदेशी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की रिपोर्ट को मोदी राज का बैरी भी करार दिया जाता है। लेकिन आम तौर पर सरकार उनकी उपेक्षा नहीं करती और जल्दी प्रतिक्रिया देने या एक्शन लेने का प्रयास करती है। बीबीसी की डाक्यूमेंटरी को तकनीकी रूप से बाधित करने के बाद उसके सार्वजनिक प्रदर्शनों पर पुलिस बल के सहारे रोक का प्रयास किया गया।
लेकिन निश्चित रूप से देशी विरोध और आलोचना के खिलाफ उठाए गए मोदी सरकार के कदम ज्यादा सख्त हैं। जिन लोगों, खासकर नौजवानों और किसानों का किसी राष्ट्रविरोधी संगठन से दूर-दूर का नाता न रहा हों, उन्हें सीधे- सीधे राष्ट्रविरोधी गतिविधियों से जुड़ा बताकर उनके खिलाफ ऐसे कानूनों के तहत कार्रवाई करना एक गंभीर मामला है। कप्पन पत्रकार हैं लेकिन मात्र एक धरम विशेष से नाता रखने के चलते उनको अतिवादी पीएफए का कार्यकर्ता बताया दिया गया। जामिया मामले में भी ऐसा ही हुआ और मामला सिर्फ धार्मिक पहचान भर का नहीं है। बहुत साफ तौर पर कहा जा रहा है कि कम्युनिस्ट होना समाज और राष्ट्रविरोधी है। वैचारिक विरोध को ऐसा नाम देना भी उतना ही गलत है जितना किसी बेकसूर को आतंकवादी और विदेशी ताकतों का एजेंट बताना। आश्चर्य नहीं कि अदालतों ने बार-बार अपने फैसले में कहा है कि राजनैतिक असहमति को एक मौलिक अधिकार बताया है। असहमति को अभिव्यक्ति की आजादी का अमूल्य मौलिक अधिकार करार दिया है। सरकारी एजेंसियों के राजनैतिक दुरुपयोग पर भी अदालतों ने टिप्पणी की है।
हैरानी नहीं कि ऐसे मामलों के चलते लोकतंत्र की निगराने वाली वैश्विक संस्थाओं ने भारत को अर्द्ध-लोकतंत्र करार दिया है। मोदी जी को ऐसी आलोचना पसंद नहीं है। यह भी कहना चाहिए कि मोदी सरकार के ऐसे कदमों पर भारतीय मीडिया का रवैया भी शुतुरमुर्ग जैसा हो जाता है। वे भी लोकतंत्र और यहां के नागरिकों के मौलिक अधिकारों के पहरेदार हैं, यह वे भूल जाते हैं या उन्हें भुला दिया जाता है। यह अच्छी बात है कि अदालतों ने अपनी जिम्मेदारी को नहीं भुलाया है। इंदिरा गांधी के शासन वाले दौर में ऐसा हुआ था और तब आंतरिक सेंसरशिप लागू किया गया था। आज ऐसा नहीं है। लेकिन जो सरकार लोकतांत्रिक रास्ते से आई है उसे अपनी जिम्मेदारियां न भूलने के साथ इतनी उदारता रखनी ही होगी कि राष्ट्रद्रोह और विरोध तथा आलोचना के अंतर को समझे वरना मुल्क ने इंदिरा गांधी का हाल भी देखा ही है।